सोमवार, 30 अगस्त 2010

 पन्द्रह

लौट आई दूर जा कर नज़र
जो गया वो फ़िर आया लौट कर

आदमी- दर आदमी देखा किए
आदमी आया नही कोई नज़र

बुदबुदाया शहर में कर फ़कीर
क्यूं चला आया में जंगल छोड कर

कौन देगा अब उसे मेरा पता
कैसे मैं लाऊंगा उस को ढूंढ कर

फ़िर मुरव्वत में किया उस पर "यकीन"
फ़िर समझ बैठा हूं उस को मोतबर
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सोलह

ज़हां भर में हमें बौना बनावे धर्म का चक्कर
हैं इंसां, हिंदू, मुस्लिम, सिख बतावे धर्म का चक्कर

ये कैसा अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का है झगडा
करोडों को हज़ारों में गिनावे धर्म का चक्कर

चमन में फ़ूल खुशियों के खिलाने की जगह लोगों
बुलों को खून के आंसू रुलावे धर्म का चक्कर

कभी शायद सिखावे था मुहब्बत-मेल लोगों को
सबक नफ़रत का लेकिन अब पढावे धर्म का चक्कर

सियासत की बिछी शतरंज के मुहरे समझ हम को
जिधर मर्जी उठावे या बिठावे धर्म का चक्कर

यकीनन कुर्सियां हिलने लगेंगी ज़ालिमों की फ़िर
किसी भी तौर से बस टूट जावे धर्म का चक्कर

मज़ाहिब करते हैं ज़ालिम हुकूमत की तरफ़दारी
निज़ामत ज़ुल्म की अक्सर बचावे धर्म का चक्कर

निकलने ही नहीं देता जहालत के अंधेरे से
"यकीन" ऎसा अजब चक्कर चलावे धर्म का चक्कर
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सत्रह

निचुडा-निचुडा और बुझा सा मेरा शहर
दहशत के साये में पलता मेरा शहर

अपने घरों में दुबका- छिपका मेरा शहर
आतंकी चादर में लिपटा मेरा शहर

झुग्गी में, फ़ुट्पाथ पे जीता मेरा शहर
ढोता सारे शहर का बोझा मेरा शहर

गलियों में अठखेली करता अंधियारा
चौराहों पे जगमग करता मेरा शहर

खोके में पनवाडी बैठा चिंतित है
हो गया "बी. टू." सुन्दर होगा मेरा शहर

दिल का दुखी आक्रोश मे जलता पाया है
जब भी देखा जिधर भी देखा मेरा शहर

टी.वी. से चिपक जब पाये लोग "यकीन'
'ज़ी', 'केबल', 'स्टार' ने जकडा मेरा शहर
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अठरह

इन्सां से जिन्हें प्यार भगवन का कोई डर
वो खुद को बताते हैं पयम्बर कभी रहबर

धीरज की तो सीमा है कोई देख सितमगर
कब तक ये सुनेंगे कि अभी धीर ज़रा धर

सहरा की तरह तपने लगे फ़ूलों के दिल भी
बुलबुल भी चहकते नहीं अब शाखे-शज़र पर

ये शहर दुनाली पे टंका है तो टंका है
मर जाएं तो मर जाएं रहेंगे तो यहीं पर

किस हुस्ने-फ़रोज़ां पे किया नाज़ भी तुम ने
जो साथ छुडा लेता है दो दिन में अधिकतर

जा अब है तू परवाज़ को आज़ाद परिन्दे
जा अब कि तेरे नोच लिए उस ने सभी पर

आतंक की चादर में छुपेंगे सितम और
इक रोज़ पुकारेंगे "यकीन" इस से उबर कर
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उन्नीस

इन्सां के दिल से क्यूं भला इन्सान मर गया
दर्यादिलों के कौन ये दिल तंग कर कर गया

कैसे गवारा हो उन्हें फ़िरकों में दोस्ती
बलवा तो लूटमार को आसान कर गया

क्यूं अब लकीरें पीटते हैं बावले-से हम
वो तो लकीर खींच कर जाने किधर गया

कल रात मैनें ख्वाब में इक सांप छू लिया
आंखें खुली तो रेशमी धागे से डर गया

दिल में चुभेगा आइना खंज़र-सा, तीर-सा
गर इस में अक्स हू--हू तेरा उतर गया

कुछ तो अब हाथ-पांव को हिलना सिखाइये
फ़िर क्या बचेगा पानी जो सर से गुज़र गया

हर आदमी पे आज भी करते हैं हम "यकीन"
बस हम सुधरे, सारा ज़माना सुधर गया
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बीस

गज़लों पे कर पाऎंगे थोडा भी गौर क्या
बिल्कुल ही हम को आप ने समझा है ढोर क्या

 जो जी में आए सोच लो तुम मेरे वास्ते
आखिर किसी के सोच पे रख्खूं मैं ज़ोर क्या

कर डाला कत्ल बाप को भाई से लट्ठ्मार
बीवी जला के मार दी, आया है दौर क्या

फ़ैकों उछालो शौक से या मारो ठोकरें
टूटा हुआ ये दिल भला टूटेगा और क्या

ताला ज़ुबां पे कोई बज़ाहिर नहीं "यकीन"
लेकिन खिलाफ़ ज़ुल्म के उठता है शोर क्या

इक्कीस

हर बार सब ने माना कि बेकार हो गया
लेकिन फ़साद शहर में हर बार हो गया

ये मज़हबी जुनून है या कोई बाइरस
जिस का ये शहर पल में गिरिफ़्तार हो गया

रंगीन फ़ूल भेंट को अब लाये हैं जनाब
अब जब वो देखने से भी लाचार हो गया
  
दुनिया लगी है नाचने दौलत के मंच पर
सौदागरों- सा हर कोई किरदार हो गया  
                        
क्या-क्या जाने और भी सहना पडेगा अब
सर को उठा के जीना तो दुश्वार हो गया

कितने निज़ाम ज़ुल्म के हम ने मिटा दिए
अब, ज़ुल्म सहना क्यूं हमें स्वीकार हो गया

ये राजनीति बाज़ आयेगी इस तरह
इस का "यकीन" खून ही बीमार हो गया
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बाईस

दिल के ज़ख्मों की तुम दवा करना
हक मुहब्बत का कुछ अदा करना

रब्त तुझ से इसी बहाने सही
मुझ को दुश्मन ही कह दिया कर ना

आने वाले की फ़िक्र लाज़िम है
जो गया उस का ज़िक्र क्या करना

हाले- दिल पूछने से क्या हासिल
हो सके तो कभी वफ़ा करना

रूठ जाये वो, इस की मर्ज़ी है
फ़र्ज़ मेरा मुझे अदा करना

दूरियां अब सही नहीं जाती
कोई मिलने का रास्ता करना

इक यही आरज़ू है अब तो "यकीन"      
कुछ मुहब्बत में गम अता करना
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जाने कैसी चली थीं यहां आंधियां
खो गये रास्ते, बढ गयी दूरियां

ये भी मंज़र दिखाया हमें राम ने
नौ- नौ आंसू बहाती है अंगनाइयां

बीते मौसम में ये कैसी बारिश हुई
बह गये प्यार के गांव और ढानियां

होता होगा कहीं ज़श्न, इस जा से तो अब
मातमी धुन बजाती है शनाइयां

धार के साथ क्यूं आप बहने लगे
याद कीजे सिखाती हैं क्या मछलियां

लूट, दंगे, गबन, कत्ल, आतशज़नी
कितने करतब दिखाती है ये कुर्सियां

एक- दूजे पे रखिये भरोसा "यकीन"
दुश्मनों की तो उड जाऎंगी धज्जियां
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