बहुत मासूम-से चहरे बहुत-से घर बनाता हूं
मैं इक संसार सपनों का मेरे अंदर बनाता हूं
कहो मत शब्द इनको ये मेरी वो भावनाएं है
मैं जिनकी हू-ब-हू तस्वीर कागज़ पर बनाता हूं
बदन में शब को दिन भर की थकन जब चुभने लगती है
संजो कर कल्पनाएं नर्म-सा बिस्तर बनाता हूं
सुकून और चैन पाने जब मेरा मन उडने लगता है
मैं अपना घर सितारों से बहुत दूर बनाता हूं
यहां अंज़ामे-हकगोई मुझे मालूम है लेकिन
कफ़न खुद अपने खातिर मैं तो हंस-हंस कर बनाता हूं
तुम्ही को हारना होगा अंधेरों,एक दिन मुझ से
मैं कन- कन को तपा कर आजकल दिनकर बनाता हूं
वो मीठे,कडवे,तीखे,नर्म,पैने,भौंथरे, जो है
"यकीन"अशआर है मेरे लहू देकर बनाता हूं
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दो
किस कदर तंग है ज़माना कि फ़ुरसत ही नहीं
वो समझते हैं हमें उनसे मुहब्बत ही नहीं
दोपहर सख्त है, सूरज से ठनी है मेरी
एसे हालात में आराम की सूरत ही नहीं
शाम से पहले पहुंचना है उफ़ुक तक मुझ को
मुड के देखूं कभी इतनी मुझे मुहलत ही नही
ज़ोर दुनिया का दिलों पर है हमेशा तारी
कैसी दुनिया है, दिलों की कोई कीमत ही नहीं
कोई खफ़गी तो ज़रूरी है तगाफ़ुल के लिए
अज़नबी हूं मैं उन्हे मुझसे शिकायत ही नहीं
देखा कुछ और था महफ़िल में बयां और करूं
ये न होगा कभी,ऎसी मेरी फ़ितरत ही नहीं
यूं तो बनते भी है कानून यहां रोज़ नए
न्याय मुफ़्लिस को मिले ऎसी हुकूमत ही नहीं
उम्र का क्या है "यकीन" आज ही दे जाए फ़रेब
कल के वादों की फ़िर ऎसे में हकीकत ही नहीं
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तीन
हमें ये सराबों की सौगात क्यूं
मुसलसल अज़ाबों की बरसात क्यूं
सुना था उजाले बटेंगे मगर
अभी तक है यहां वही रात क्यूं
दिय ज़ख्म गहरे नहीं गम मगर
अमल कुछ ज़ुबा पर अलग बात क्यूं
किसी पर तो नाहक महरबानियां
हमारे ही दिल पर ये आघात क्यूं
रहें दोस्तों में अगर दोस्त हैं
अजी दुश्मनों से मुलाकात क्यूं
फ़कत आप के एशो-आराम को
किए साफ़ लोगों ये जंगलात क्यूं
जहां से उजाडे गए झोंपडें
वहीं हैं नज़र में महल्लात क्यूं
थी कैसी मुहब्बत,था कैसा मेल-जोल
किए मुश्तहर इख्तिलाफ़ात क्यूं
तुम्हीं ने गिराई यहां बिजलियां
तुम्हारी ही आंखों से बरसात क्यूं
हमेशा चढें सूली ईसा मसीह
हमेशा पीये ज़हर सुकरात क्यूं
"यकीन" आईने जब कि है सामने
दिलों में श्क्को-सवालात क्यूं
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चार
दिल के ज़ेरे-असर
ज़हन है बेखबर
तुम बुलाओ अगर
आएंगे दौड कर
बज़्म की नज़्र है
शैर कुछ मुख्तसर
धुन थी मंज़िल की,हम
हो गए दर-ब-दर
फ़ासलों से परे
प्यार का है नगर
एक मकसद पे रख
इक नज़र राह पर
ये तो हालात है
होंगे ज़ेरो-ज़बर
क्यूं कालिख लगी
वक्त के नाम पर
अपना-अपना यकीं
अपनी-अपनी नज़र
तय करेंगे"यकीन"
रास्ते पुरखतर
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पांच
कोई साथ दे या कोई छोड जाए,जो खुद चल रहे हैं गिरे कब हैं लेकिन
कभी काफ़िलों में,कभी तनहा-तनहा,सफ़र ज़िंदगी के रुके कब है लेकिन
ज़माने की तारीख में कैसी-कैसी चली आंधियां और तूफ़ान आए
हुईं बारिशें भी सितम की मुसलसल,च्ररागे-हकीकत बुझे कब हैं लेकिन
हिरणकश्यपों ने रचे जाल कितने, रहीं ज़ुल्म की संगिनी होलिकाएं
सजाई चिताएं फ़रेबों ने अक्सर,प्रहलाद हैं वो जले कब है लेकिन
भुला दे सियासत की चालें किसी को,करें कोशिशे खुदगरज़ चाहे कितनी
वो मर्जी के इतिहास रच-रच के थोपे,भगतसिंह दिल से गए कब है लेकिन
कभी धर्म-मज़हब में वो भॆद करते,कभी अहमियत जाति-भाषा की रटते
लडाते हैं लोगों को इस-उस बिना पर, ये अहले-सियासत लडे कब हैं लेकिन
हमेशा ही दादा से नानी से हम ने सुनी परियों,शाहों,नवाबों की बातें
गरीबों पे क्या-क्या मज़ालिम हुए हैं,किसी ने वो किस्से कहे कब हैं लेकिन
ज़माने के सुर-ताल में चलते-चलते,निजि सुर न जाने कहां खो गए हैं
बदल ही गई है रागिनि ज़िंदगी की,खुद अपने शनासा रहे कब हैं लेकिन
कि अम्नो-अमां के लिए अय "यकीन" इस जहां में बहें हैं बहुत खूं के दरिया
किसी जंग के बाद खुशियों के परचम रिआया के दिल में हंसे कब हैं लेकिन
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छह
घटा हो तुम मुहब्बत की सुराही हो लबालब तुम
बरस जाओ,छ्लक जाओ,कभी आ कर यहां अब तुम
नफ़ीस अल्फ़ाज़ मोती-से जडे हो जिसके शैरों में
किसी शायर की उस दिलकश गज़ल-सी हो मुरत्तब तुम
अकेले वक्त कटता है बस इतना याद कर कर के
अकेले में मुझे किस किस जगह मिलते थे कब कब तुम
वफ़ा कर के भी हम तो इस जहां में बेवफ़ा ठहरे
ज़माना अब तुम्हारा है वफ़ापेशा फ़कत अब तुम
तुम्हें बस ताकते रहना,न कुछ कहना,न कुछ सुनना
समझ जाते कभी तो काश इन बातों का मतलब तुम
सहर से शाम हो जाती है दुनिया के झमेलों में
बहुत आते हो लेकिन याद जैसे ही हुई शब तुम
हमें तुम पर "यकीन" अब भी वही है देख लो आकर
न अब आये तो पछताओगे, आओगे कभी जब तुम
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सात
हम समझते थे जिन्हे ताबो-तवां का पैकर
वक्त पर निकला वही आहो-फ़ुगां का पैकर
मतलबो-मौकापरस्ती के है किरदार सभी
किस बलंदी पे है देखो तो जहां का पैकर
हर तरफ़ अब तो नज़र में है लहू के धब्बे
कितना बदरंग हुआ अम्नो-अमां का पैकर
इस ज़माने की घुटन साफ़ बयां करती है
कल ज़मीं पर भी गिरा होगा ज़मां का पैकर
हर तरफ़ झूट नज़र आता है अब इस युग में
कैसा आईना "यकीन" और कहां का पैकर
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आठ
ये भी है मुहब्बत की जज़ा देख रहा हूं
उसने भी मुझॆ गैर कहा देख रहा हूं
बर्बाद वो हो कर ही रहा देख रहा हूं
चोरों के सर इल्ज़ाम गया देख रहा हूं
मुहरों को नही उसने हरीफ़ों को उठाया
शतरंज़-सा इक खेल नया देख रहा हूं
अब तो जो दिए नाम वो मशहूर हैं, मैं तो
लोगों ने मुझे क्या न कहा देख रहा हूं
अब पास मेरे उस के चले जाने पे लोगों
आहों के सिवा क्या है बचा देख रहा हूं
मिन्नत भी बहुत की थी, मनाया भी बहुत था
पर अब भी है वो मुझ से खफ़ा देख रहा हूं
इस दिल को किया चाक भी हंस-हंस के उसी ने
जो आ कर मेरे दिल में बसा देख रहा हूं
किस-किस पे किया मैनें "यकीन" आज से पहले
किस-किस ने दिया मुझ को दगा देख रहा हूं
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नौ
तुझे पता नही दस्तूर इस ज़माने का
यहां तो शौक है लोगों को दिल दुखाने का
गिला भी उसका है वाज़िब मगर ए कासिर हैफ़
न देख पाया वो मंज़र मैं उस के जाने का
अब और इस को सताने की जिद नहीं करना
कि मेरा दिल कहां आदी है और चोट खाने का
वो आता कैसे कि मैनें उसे बुलाया नहीं
बहाना खूब है उसका यहां न आने का
किसी के साथ गए हैं "यकीन" होश मेरे
अबस तेरा है ये इसरार होश लाने का
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