सोमवार, 27 सितंबर 2010

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इकतीस

अपने - अपने मोर्चे डट कर संभालें दोस्तों
इस चमन को हम उजडने से बचा लें दोस्तों

गर कोई मतभेद भी है रास्तों के दरमियां
कोई साझी राह मिल्जुल कर निकालें दोस्तों

कुछ गलतफ़हमी में उन को रूठ कर जाने न दें
बढ के आगे अपने प्यारों को मना लें दोस्तों

सल्तनत ही डोल जाये जिन के दम से ज़ुल्म की
शब्द ऎसे भी हवाओं में उछालें दोस्तों

बस्तियों को खाक कर दे बर्क इस से पेशतर
बस्तियों पे हम कोई बक्तर चढा लें दोस्तों

जो अलमबरदारी - ए- अम्नो - अमां में मिट गए
गम ' यकीन' ऎसे जियालों का भी गा लें दोस्तों
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बत्तीस

है कहानी ये तेरी सच को छुपाने वाली
बात कर दोस्त कोई दिल को दुखाने वाली

मार खा कर हमें इतना तो समझ में आया
उस ने क्या चाल चली हम को हराने वाली

आज दुनिया की तबाही पे है दुनिया तैयार
कैसी दुनिया है ये खुद को ही मिटाने वाली

बंदरों को तो नचा लेते है लाठी अक्सर
अब कोई शै हो मदारी को नचाने वाली

वो अदाकारा है, सुंदर है, मगर सुन बेटे
लोग कहते हैं उसे नाचने- गाने वाली

जैसे मासूम शरारत हो किसी बच्चे की
उस की हर बात थी यूं दिल को रिझाने वाली

कोई इस दर्जा करीब आया कि अब दिल को 'यकीन'
याद उस की न कभी छोड के जाने वाली

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तैंतीस

रोशनी द्वार - द्वार मांगी थी
चप्पा - चप्पा बहार मांगी थी

झील, झरनों, नदी, समुंदर से
मीठे पानी की धार मांगी थी

वादियों ने दसों दिशाओं से
शांत शीतल बयार मांगी थी


सहरा आया हमारे हिस्से में
हम ने हरदम फ़ुहार मांगी थी


वक्त अक्सर मुकर गया लेकिन
हम ने राहत हज़ार मांगी थी


हम ने तो इन प्रकाश - पुंजों से
रोशनी बार - बार मांगी थी

सर पे हरदम जो अपने लटकी है
कब ये नंगी कटार मांगी थी

पैंतरें आप को मुबारक सब
हम ने कब जीत - हार मांगी थी


कोई सपना खुशी का मिल जाए
नींद यूं कुछ उधार मांगी थी

हल चला कर 'यकीन' खेतों में
पेट भरने को ज्वार मांगी थी
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चौतीस

बात दिल खोल के आपस में अगर हो जाती
हम अंधेरों से उबर जाते सहर हो जाती

कौन हैं गैर अगर इतना समझ लेते तुम
हम तुम्हारे हैं तुम्हें ये भी खबर हो जाती

सुल्ह की फ़िर निकल आती कोई सूरत भी ज़रूर
काश इस सम्त कभी उन की नज़र हो जाती

फ़िर न करते वो कभी मुझ को दिवानों में शुमार
दिल हालत जो इधर है वो उधर हो जाती

राहतें मैं भी मंगा लेता मियां दिल्ली से
किसी मंत्री से मेरी बात अगर हो जाती

प्यार के फ़ूल नहीं होते जो गुलशन में 'यकीन'
ज़िंदगी जैसे कोई सूखा शजर हो जाती
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पैतीस

हम को लडवा दिया फ़िर कर्फ़्यू लगाने को चले
इस तरह अम्नों - अमां शहर में लाने को चले

रात को कत्ल जिन्होंने था किया हंस - हंस कर
सुबह मैयत पे वही आंसू बहाने को चले

दिल में गैरों से गिला रखना हिमाकत होगी
आंख के तारे ही जब आंख दिखाने को चले

उस ने दरिया पे नहाने को उतारे कपडे
लोग कहने लगे लो जिस्म दिखाने को चले

भैसें मदमस्त हुईं, बीन बजाने को मिली
सांप इन को भी लो सुराताल सधाने को चले

जी भरा मुझ से तो वो उस के गले जा लिपटे
मुझ से ऊबे तो 'यकीन' और ठिकाने को चले
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छ्त्तीस

गम में शामिल हो किसी के न खुशी अपनाये
खुद को वो शख्स भरी दुनिया में तनहा पाये

कैसा तूफ़ान उठाते हैं ज़माने वाले
जब कोई शैर हकीकत का बयां कर जाये

सुनने वाले हों जहां लोग सभी पत्थर दिल
ऎसी महफ़िल में भला कोई गज़ल क्या गाये

खून के आंसू मुझे पीने की आदत हो चली
क्या मजाल अब कि कोई बूंद कहीं गिर जाये

कुछ नहीं दिखता कहीं इतना अंधेरा है 'यकीन'
रोशनी तेज़ कहीं इतनी नज़र चुंधियाये
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सैतीस

कल की यादों की कसक है कि बताये न बने
गुज़रे लम्हों की किसी तौर बुलाये न बने

जब चला जाऊंगा मैं याद बहुत आऊंगा
सामने हूं, न कहो आज सताये न बने

प्यार करने के लिए दोस्तों मुहलत है किसे
आज दो वक्त की रोटी तो कमाये न बने

बेरदीफ़ आप कहे भी तो गज़ल हो जाये
शैर कोई भी बिना काफ़िया लाये न बने

हर नये शाह ने लिखवाया है फ़िर से इतिहास
सच्चे किस्से न यूं तारीख में आये, न बने

उस से कहना तो बहुत कुछ है मगर क्या है मजाल
एक पल भी तो उसे पास बिठाये न बने

उन की है अपनी हदें मेरे मसाइल है मेरे
मुझ से रोते न बने, उन से हंसाये न बने

टूट जाऎं न कहीं देखना आपस के ' यकीन'
घर उजड जाए जो इक बार, बसाये न बने
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अड्तीस

क्यूं अंधेरे हम को याद आने लगे
क्यूं ये दीपक आग बरसाने लगे

लोग कुछ लोगों को समझाने लगे
लोग कुछ लोगों को उकसाने लगे

डरने वाले सब किनारे रह गये
जो निडर थे तैर कर जाने लगे

आप के इतना कहां हूं मैं शरीफ़
आप तो बेकार घबराने लगे

हो नहीं पाया मुक्म्मल भी मकान
लोग इक - इक ईंट खिसकाने लगे

कैसे संजीदा उन्हें माने 'यकीन'
उन के सब अंदाज़ बचकाने लगे

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उनचालिस

सडकें तो हैं, सकडी गली लेकिन है मेरे वास्ते
आज़ाद हूं, फ़िर हथकडी लेकिन है मेरे वास्ते

चलता हूं मैं तो सामने धरती पे रखता हूं नज़र
फ़िर हर कदम पर त्रासदी लेकिन है मेरे वास्ते

लाचारियां, मायूसियां, नाकामियां हैं चार सू
ये ज़िंदगी भी ज़िंदगी लेकिन है मेरे वास्ते

कोई किसी के वास्ते हिंदू, मुसल्मां, सिक्ख हो
हर आदमी इक आदमी लेकिन है मेरे वास्ते

तुम ने बहुत चाहा 'यकीन' अब पांव फ़ूलों पर रखूं
दुनिया फ़कत काटों भरी लेकिन है मेरे वास्ते

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चालीस

वक्त ज़ाए न अब किया जाये
नज़्म घर का बदल लिया जाये

हम ने क्या- क्या न सहा अब तक
अब तो मिलजुल के कुछ किया जाये

सर झुका है तो फ़िर कटेगा ज़रूर
क्यूं न सर को उठा लिया जाये

जानता हूं तुम इस से खेलोगे
फ़िर भी सोचा है दिल दे दिया जाये

मुद्दतों में मिली है तन्हाई
आज जी भर के रो लिया जाये

इतनी नज़्दीकियां भी ठीक नहीं
तुम से कुछ दूर हो लिया जाये

गाडी अब और यूं चलेगी नहीं
सोचना ये है, क्या किया जाये

ज़ुल्म दिल पर 'यकीन' और नहीं
प्यार खुद से भी अब किया जाये
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