सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

इकतालिस

कोई भी आंख देखो नम नहीं हैं
गज़ल कहने का ये आलम नहीं है

मेरा इसरार बेमौसम नहीं है
तेरे होटों पे क्यूं हरदम ’नहीं’ हैं

यही अंदाज़ है उन को गवारा
तेरे लहज़े में कोई दम नहीं है

चलन जब से है ज़माने का जाना
मुझे कोई खुशी या गम नहीं है

जो होता ज़ख्म कोई भर ही जाता
किसी नासूर को मरहम नहीं है

गज़ल तो आजकल छपती है ढेरों
मगर अशआर में कुछ दम नहीं है

ज़माने आज़्मा ले जितना चाहे
मेरा भी हौसला कुछ कम नहीं है

तुम्हारे होश आखिर गुम हुए क्यूं
गज़ल का शैर है, ये बम नहीं है

’यकीन’ उस पर करूं अब और कैसे
वो अपनी बात पर कायम नहीं है

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बयालिस

ये भी गज़ल का मतला है
जग में हर सू घपला है

पानी बरसा सहरा में
मौसम यूं भी बदला है

सुर्खी है अख्बार की ये
नेताजी को नज़ला है

अपने घर की खैर मना
जो चमके है, चपला है

इतिहासों में कुछ होगी
अब तो नारी अबला है

कमलेश्वर की मौज लगी
धंधे वाली कमला है

हरियाला है अपना घर
अपने घर भी गमला है

मुश्किल है अपनी भाई
अपना स्तर मझला है

सच तो ये है आज ’यकीन’
हाले- दिल पतला है
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तियालिस

ज़र्रा - ज़र्रा ज़मीं का रोता है
आसमां लम्बी तान सोता है

कोई अपना नहीं हो पास अगर
आदमी क्यूं उदास होता है

उठती है इस की उंगली उस की तरफ़
अपनी कालर न कोई धोता है

आप मुजरिम को दे सके न सज़ा
इस को दीजे ये उस का पोता है

जो भी आका कहें ये दुहरा दे
दूरदर्शन है ये कि तोता है

जिस से फ़ूटे है बेल नफ़रत की
आदमी क्यूं वो बीज बोता है

क्यूं है दुश्वारियां ’यकीन’ इतनी
हर कोई ज़िंदगी को ढोता है
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चवालिस

फ़र्ज़ की बंदिश में दिल ये प्यार से मज़्बूर है
या कोई पंछी कफ़स में ज़िंदगी से दूर है

मन उधर ले जाए है तो ज़हन खीचें है इधर
तन - मुसाफ़िर इसलिए हर आस्तां से दूर है

करना पडता और कुछ, दिल की रज़ा है और कुछ
हर तमन्ना किस कदर हालात से मज़्बूर है

कुत्ते की दुम की तरह टेढा रहा उस का मिज़ाज
तेरी हर कोशिश दिवाने देख थक कर चूर है

अपने हाथों खुद अभी पर बांध कर छोडा परिन्द
अब ये पूछे हो उसे, क्यूं उडने से माज़ूर है

अब तुम्हे क्या हो गया, तुम ने अभी था ये कहा
आप की तो शर्त हर मंज़ूर है, मंज़ूर है

अय ’यकीन’ अब तेरा चर्चा है सारे शहर में
अब तेरा दीवानापन चारों तरफ़ मशहूर है
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